भारत का विश्वास से रिश्ता सदियों पुराना है, लेकिन अदृश्य शक्तियों के प्रति उसकी दीवानगी ने चुपचाप देश की सबसे अनियमित और अनियंत्रित छाया अर्थव्यवस्थाओं में से एक को जन्म दे दिया है। चमकते मंदिरों और चकाचौंध भरे ज्योतिष ऐप्स के पीछे छिपी है एक समानांतर अर्थव्यवस्था यानी डर की अर्थव्यवस्था, जिसकी सालाना आय ₹30,000 करोड़ से ₹50,000 करोड़ के बीच आं की गई है, जिसका ज़िक्र कहीं नहीं होता।
विश्वास का छिपा बाज़ार
सच पूछें तो भारत में अंधविश्वास सिर्फ साँसें नहीं ले रहा है, बल्कि फल-फूल रहा है। फुसफुसाते श्रापों से लेकर “नज़र उतारने” वाले अनुष्ठानों तक, यह काला-जादू और तंत्र-मंत्र की अर्थव्यवस्था असल में किसी रहस्यमयी शक्ति से नहीं, बल्कि व्यापार से संचालित है। सच पूछिए तो यहां “तांत्रिक” और “बाबा” अक्सर खलनायक के रूप में दिखाए जाते हैं, और असली मुनाफा निकलता है इलाज के कारोबार से, जहां डर एक “उत्पाद” है और आस्था उसकी “कीमत।” मुंबई से लेकर मेरठ तक परिवारों को “ब्लैक मैजिक रिमूवल,” “एनर्जी क्लीनसिंग,” या “एस्ट्रोलॉजिकल हीलिंग” के नाम पर ठगा जाता है। एक साधारण “झाड़-फूंक” की रस्म का दाम ₹15,000 से ₹1.5 लाख तक होता है। वहीं व्हाट्सऐप पर “स्पेल रिमूवल सर्विस” ₹5,000 से शुरू हो जाती है और हजारों ऐसे तांत्रिक खुलेआम सोशल मीडिया पर विज्ञापन डालते हैं, यह दावा करते हुए कि “24 घंटे में असर गारंटीड।” ऐसे मेंबस एक क्लिक, और एल्गोरिद्म आपको पहुंचा देता है डिजिटल ओरेकल्स यानी भविष्यवक्ताओं की दुनिया में।
भले किताबों में दर्ज न हों, लेकिन आंकड़े बोलते हैं
इंडिया टीवी की रेडइंक अवार्ड विजेता जांच के अनुसार, “गॉडमैन + ओकल्ट” (तांत्रिक-आध्यात्मिक) अर्थव्यवस्था का सम्मिलित आकार ₹40,000 करोड़ से अधिक है। सिर्फ महाराष्ट्र में हर साल लगभग ₹1,200 करोड़ “गॉडमैन” या “हीलर्स” को परामर्श शुल्क के रूप में खर्च किए जाते हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार, पिछले एक दशक में 2,000 से अधिक हत्याएं “डायन,” “बलि” या “ओकल्ट रिचुअल्स” से जुड़ी हुई दर्ज की गई हैं। हालांकि विशेषज्ञ मानते हैं कि जितने मामले दर्ज होते हैं, उतने ही दस गुना मामले स्थानीय पंचायतों या समझौतों में दबा दिए जाते हैं।
अदृश्य अर्थव्यवस्था
यह एक ऐसा काला बाज़ार है, जो खुलेआम होकर भी छिपा हुआ है क्योंकि इसमें न कोई जीएसटी है, न कोई रसीद है और न कोई जवाबदेही है। लेन-देन के नाम हैं “पूजा दान,” “एनर्जी क्लीनसिंग फीस,” या “कंसल्टेशन दक्षिणा।” यह भक्ति और धोखे का ऐसा घालमेल है, जिसमें नकद और विश्वास दोनों बेझिझक बहते हैं, और वो भी कर विभाग या उपभोक्ता कानूनों की पहुंच से दूर। समाजशास्त्री इसे “समानांतर आस्था अर्थव्यवस्था” कहते हैं, जो आध्यात्मिकता का मुखौटा पहनकर डर को हथियार बनाती है।
न्यू-एज तंत्र अर्थव्यवस्था
सच कहें तो डिजिटलीकरण ने अंधविश्वास को खत्म नहीं किया है, बल्कि और बढ़ा दिया है। भारत की “तंत्र इकॉनमी” अब ऑनलाइन हो चुकी है। 1,000 से अधिक यूट्यूब चैनल, टेलीग्राम ग्रुप और इंस्टाग्राम पेज “नज़र दोष रिवर्सल,” “एनर्जी एलाइनमेंट,” और “एस्ट्रो-तंत्र सॉल्यूशंस” बेचते हैं। कई में यूपीआई लिंक, ग्राहक समीक्षाएं और सब्सक्रिप्शन मॉडल तक मौजूद हैं। कभी जो बातें अंधेरे कमरों में फुसफुसाई जाती थीं, वे अब न सिर्फ रील्स पर ट्रेंड बन चुकी हैं, बल्कि मॉनेटाइज़्ड, ऑप्टिमाइज़्ड और डिज़ाइन के जरिए वैध ठहराई जा रही हैं।
अब सिनेमा दिखाएगा आईना
7 नवंबर 2025 को रिलीज़ होने जा रही फिल्म ‘जटाधारा’ इस अंधकार को सीधा आंखों में देखकर चुनौती देती है। ज़ी स्टूडियोज़ द्वारा निर्मित और वेंकट कल्याण द्वारा निर्देशित यह फिल्म विश्वास को एक रूपक में बदल देती है और दिखाती है कि कैसे सदियों पुराने अनुष्ठान आधुनिक शोषण में बदल जाते हैं। विशेष रूप से फिल्म का मायावी श्राप “धन पिशाच” इस बात का प्रतीक है, कि कैसे आस्था के पीछे लालच छिपा है, जहां भक्ति कारोबार बन जाती है और डर पैसा। ऐसे में ‘जटाधारा’ सिर्फ एक अलौकिक कथा नहीं, बल्कि भारत की अदृश्य अरबों की अंध-आस्था उद्योग पर सामाजिक टिप्पणी के रूप में उभरती है।
अंधविश्वास की कीमत
भारत की आध्यात्मिक विविधता उसका अभिमान है, लेकिन होता यह है कि जब असंयमित अध्यात्म व्यापार बन जाता है, तो भक्ति कर्ज में बदल जाती है। ऐसे में हर उस मंदिर में बैठा भगवान, जो हमें आशा देता है, वो हमारी निराशा से मुनाफा कमाता है और हर आस्था की रस्म के लिए, हम एक डर का सौदा करते हैं। जब तक यह ₹50,000 करोड़ की अंध-आस्था साम्राज्य अनटैक्स्ड और अनरेगुलेटेड रहेगा, तब तक राक्षसों को काला जादू करने की जरूरत नहीं क्योंकि पैसा ही उनका जादू है।
